स्किनर के अधिगम सिद्धान्त को उसके शैक्षिक महत्व के साथ विस्तार से समझाइए ।
स्किनर के क्रिया प्रसूत सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिये ।
उत्तर-
स्किनर का क्रिया प्रसूत सिद्धान्त
उत्तेजक अनुक्रिया सिद्धान्तों में बी.एफ. स्किनर का सिद्धान्त वहुत महत्वपूर्ण है। स्किनर अमरीकन मनोवैज्ञानिक थे। उनके इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 1938 में हुआ।स्किनर जब हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे तब उन्होंने व्यवहार का व्यवस्थित एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने के लिये कुछ यन्त्र विकसित किये।
इसीलिये उनके इस सिद्धान्त को विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे-क्रिया प्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त, कार्यात्मक अनुबन्ध सिद्धान्त, नैमित्तिक अनुबन्धन सिद्धान्त, सक्रिय अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त आदि।
स्किनर एक व्यवहारवादी थे इसलिये उन्होंने चूह तथा कबूतरों की सहज क्रियाओं पर अनेक प्रयोग किये। स्किनर का यह सिद्धान्त क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन के नाम से अधिक जाना जाता है क्योंकि यह कुछ क्रियाओं पर आधारित होता है जो किसी व्यक्ति को करने होते हैं।
स्किनर का यह सिद्धान्त पॉवलाव के शास्त्रीय व रूढ़िगत अनुबन्धन सिद्धान्त से भिन्न है। पॉवलाव के सिद्धान्त में कुत्ता मेज से बँधा होता था और अक्रिय था। कुत्ता कोई क्रिया नहीं करता था लेकिन स्किनर के सिद्धान्त में प्रयोज्य क्रिया करते हैं, वे सक्रिय रहते हैं और इसीलिये इस सिद्धान्त को क्रिया प्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त कहा गया है।
क्रिया प्रसूत अनुबन्धन का अर्थ
क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन का अर्थ समझने के लिए अपने स्कूली जीवन के अतीत में झाँकिये जब आप स्कूल जाने के नाम से ही थर-थर काँपने लगते थे, रिक्शा वाले को देखकर आपको क्रोध आता था, आप उसे अपना दुश्मन समझते थे, स्कूल में बिल्कुल मन नहीं लगता था, मम्मी-पार्पा, भाई-बहनों को याद करके रोना आता था, शिक्षक के पुचकारने या कुछ खाना देने पर चुप हो जाते थे। फिर रोने लगते थे, चुप हो जाते थे और फिर यही क्रम तब तक चलता रहता था जब तक स्कूल की छुट्टी न हो जाये और आप अपने घर न पहुँच जायें। फिर दूसरा दिन आता, आप स्कूल जाने से फिर मना कर देते और रूठ करबैठ जाते।
गम्मी के बहुत प्यार करने पर और पैसे या टॉफी मिलने पर ही स्कूल का रूख करते। जिस दिन यह सब नहीं मिलता हड़ताल करके बैठ जाते। धीरे-धीरे आप बड़े हुए और पढ़ाई व दोस्तों में मन लगने लगा।
अब आप स्कूल स्वयं ही बिना किसी लालच के जाने लगे। स्किनर के अनुसार स्कूल आप दोनों ही स्थितियों में गये लेकिन पहली स्थिति में लालच आपको स्कूल ले गया जबकि दूसरी स्थिति में पढ़ने में रुचि ।
पहली स्थिति शास्त्रीय अनुकूलन है तथा दूसरी क्रिया-प्रसूत अनुकूलन । इसीलिये स्किनर कहते हैं कि पुनर्बलन करने वाला उत्तेजक अथवा कृत्रिम उत्तेजक अनुक्रिया के साथ या तुरन्त बाद नहीं देना चाहिये बल्कि अपेक्षित अनुक्रिया करने के बाद दिया जाना चाहिये।
वे पुनः कहते हैं कि आप पहले प्रयोज्य को अनुक्रिया करने दें और अगर आप उसकी अनुक्रिया से सन्तुष्ट हैं तो उसका पुनर्बलन करके आगे बढ़ाइले क्योकि पुरस्कार पुनर्बलन के रूप में अनुक्रियो को दृढ़ करता है और पुनः उसी क्रिया को करने के लिये प्रेरित करता है।
अंत में सीखने वाला वांछित व्यवहार की जल्दी-जल्दी पुनरावृत्ति करके वैसा ही व्यवहार करने लगता है जैसा दूसरा उससे चाहता है। इस प्रकार अपेक्षित अनुक्रिया तथा पुनर्बलन इस सिद्धान्त के दो मुख्य केन्द्र बिन्दु हैं और यही कारण है कि इस सिद्धान्त को उद्दीपक अनुक्रिया के स्थान पर अनुक्रिया-उद्दीपक के रूप में जाना जाता है।
इस प्रकार सीखने का सार उत्तेजक स्थानापन्नता (Stimulus-substitution) नहीं वरन् प्रतिक्रिया में सुधार है।
स्किनर ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या दो प्रकार के व्यवहारों की व्याख्या से की है-
(1) प्रसूत व्यवहार
वॉटसन का विश्वास था कि बिना उत्तेजना के (उद्दीपक) कोई अनुक्रिया नहीं होती. है। स्किनर इस सिद्धान्त से सहमत न था। उसके अनुसार जो अनुक्रियाएँ किसी उद्दीपक के कारण होती हैं उन्हें अनुक्रिया व्यवहार कहा जाता है।इस प्रकार के व्यवहार के उदाहरण के रूप में सभी प्रकार के सहज व्यवहार आ जाते हैं, जैसे- पिन चुभने पर हाथ हटा लेना, तीव्र प्रकाश में पलकों का झपकाना तथा खाना दिखाई देने पर लार टपकाना आदि।
इसके विपरीत, जो अनुक्रियाएँ स्वेच्छा से होती हैं अर्थात् बिना किसी उद्दीपन के, उसे प्रसूत व्यवहार कहा जाता है, जैसे वच्चे द्वारा एक खिलौने को छोड़कर दूसरा ले लेना, किसी व्यक्ति द्वारा अपने हाथ या पाँव को यूँ ही इधर-उधर हिलाना, इधर-उधर चहलकदमी करना तथा कुछ पढ़ना-लिखना आदि।
स्किनर के अनुसार अधिकतर व्यवहार प्रसूत ही होते हैं, जैसे-टेलीफोन की घंटी बजने पर उसके प्रति प्रतिक्रिया करना या न करना व्मवित की इच्छा पर निर्भर करता है।
स्किनर ने इन व्यवहारों को एस-टाइप और आर-टाइप भी कहा है तथा कुछ लोगों ने इलीसिटीड तथा एमीटिड कहने का तात्पर्य यह है कि क्रिया प्रसूत व्यवहार उद्दीपन पर आधारित न होकर अनुक्रिया अथवा व्यवहार पर निर्भर करता है।
यहाँ व्यक्ति को पहले कुछ न कुछ करना होता है उसके बाद ही उसे परिणाम के रूप में कुछ न कुछ पुरस्कार की प्राप्ति होती है तथा उसके व्यवहार का पुनर्बलन किया जाता है।
उदाहरणार्थ, एक बच्चा स्कूल से मिले कार्य को समाप्त करता है और उसके तुरन्तु, बाद माता-पिता मुस्कराहट या प्रशंसा करके उसका उत्साह बढ़ाते हैं। दूसरे दिन बच्चा फिर अपना कार्य समाप्त करता है और अच्छा कार्य करने के लिये उसकी फिर प्रशंसा होती है।
स्किनर इसी प्रकार के पुनर्वलन और उसके पर्याप्त और तुरन्त होने पर बल देते हैं। उनके अनुसार आज का शिक्षक छात्रों को वांछनीय कार्यों का तुरन्त व पर्याप्त रूप से पुनर्बलत नहीं कर पाता जो प्रभावशाली शिक्षण की एक कमी है।
सक्रिय व्यवहार स्वेच्छा से होता है तथा किसी उत्तेजक के नियन्त्रण में नहीं होता है।
(2) अनुक्रिया व्यवहार
जैसे रोशनी के आने पर आँखों के पलक झपक जाना तथा आलप्नि चुभाने पर शरीरके अंगों का मुड़ जाना, प्रतिक्रियात्मक व्यवहार के उदाहरण हैं। * सक्रिय अनुकूलन (Operant Conditioning) में सक्रियता से पुनर्बलन मिलता है तथा लुप्तता (Extinction) से कमजोर होता है।
स्किनर द्वारा किये गये प्रयोग -
स्किनर ने सर्वप्रथम अपना कार्य चूहों पर किया और बाद में कबूतरों पर। इसके लिये उसने एक बॉक्स बनवाया जिसे स्किनर बॉक्स के नाम से जाना जाता है तथा इस बॉक्स को थार्नडाइक की उलझन पेटी का ही एक संशोधित रूप माना जाता है।
प्रयोग 1. स्किनर द्वारा बनाया गया बॉक्स अंधकार युक्त एवं शब्दविहीन है। इस बॉक्स में भूखे चूहे को बिलयुक्त संकरे रास्ते से गुजरकर लक्ष्य तक पहुँचना होता था। प्रयोग आरम्भ करने से पहले चूहे को निश्चित दिनों तक भूखा रखा गया तथा उसे भोजन प्राप्त करने के लिये सक्रिय रहने का उपक्रन भी कर लिया गया था।
बॉक्स में एक लीवर भी था। चूहा उपयुक्त मार्ग पर अग्रसर होता, लीवर पर उसका पैर पड़ता और खट की आवाज होती। लीवर पर पैर पड़ते ही प्रकाशयुक्त बल्ब जलता तथा खट की आवाज होने के साथ ही उसे प्याले में कुछ खाना प्राप्त हो जाता।
चूहा इधर-उधर आश्चर्य से दौड़ता है। प्रथम बार उसे खाना दिखाई नहीं दिया। चूहा अपनी गतिविधियों को जारी रखता है। कुछ समय पश्चात् अथवा देर से चहा भोजन को देखता है और उसे खा लेता है।
चूहा इन्हीं गतिविधियों को जारी रखता है। वह लीवर को पुनः दबाता है तथा इस बार भी खट की आवाज के साथ भोजन उसकी प्याली में आ गिरता है। आगे के प्रयासों में चूहा लीवर को और जल्दी-जल्दी दबाता है तथा भोजन भी शीघ्रता से प्राप्त कर लेता है।
यहाँ लीवर को दबाने से होने वाली आवाज तथा प्राप्त भोजन पुनर्वलन का कार्य करता था। इन क्रियाओं का अर्थ यह है कि चूहे ने भोजन की प्राप्ति के लिये लीवर का दबाना सीख लिया तथा चूहे द्वारा सक्रिय रहकर जैसे-जैसे पुनर्वलन मिलता क्या वैसे-वैसे उसकी सही अनुक्रिया करने तथा लक्ष्य तक पहुँचने की प्रक्रिया में तीव्रता आती चली गई।
इसके बाद स्किनर ने प्रक्रिया में परिवर्तन किया तथा चूहे को लीवर दबाने पर भोजन केवल तभी मिलता था जब साथ में सुरीली ध्वनि भी होती थी। धीरे-धीरे चूहे ने सामान्यीकरण कर लिया और केवल तभी लीवर दबाने लगा जब सुरीली ध्वनि होती थी।
प्रयोग 2. यह दूसरा प्रयोग स्किनर के कबूतरों पर किया।
कबूतरों पर प्रयोग करने के लिये उन्होंने एक अन्य संयन्त्र, जिसे कबूतर पेटिका कहा जाता है, का उपयोग किया। कबूतरों के साथ किये जाने वाले इस प्रयोग में स्किनर ने यह लक्ष्य सामने रखा कि कबूतर दाहिनी ओर एक पूरा चक्कर लगाकर एक सुनिश्चित स्थान पर चोंच मारना सीख जाये।
कबूतर पेटिका में बन्द भूखे कबूतर ने जैसा ही दाहिनी ओर घूमकर सुनिश्चित स्थान पर चोंच मारी उसे अनाज का एक दाना प्राप्त हुआ। इस दाने द्वारा कबूतर को अपने सही व्यवहार कोपुनरावृत्ति के लिये पुनर्बलन प्राप्त हुआ और उसने पुनः दाहिनी ओर घूमकर चोंच मारने की प्रक्रिया की।
परिणामस्वरूप उसे फिर अनाज का एक दाना प्राप्त हुआ। इस प्रकार धीरे-धीरे कबूतर ने दाहिनी ओर सिर घुमाकर एक पूरा चक्कर काटकर चोंच मारने की क्रिया द्वारा अनाज, प्राप्त करने का ढंग सीख लियो।
ठीक इसी प्रकार स्किनर ने चिड़िया को भी पिंग-पांग खेलना सिखा दिया। अपने एक अन्य प्रयोग में उसने कबूतर को गेंद से भी खेलना सिखा दिया। उसने कबूतर को एक पिंजड़े या बन्द स्थान में एक छोटी गेंद के साथ, जिसे वह अपनी चोंच से हिला-डुला सके, रख दिया।
अब उसने निरीक्षण किया कि वह गेंद के साथ अपनी चोंच से जो हरकत करता है वह किस स्थिति में अधिक करता है-भरे पेट, अंधेरे में, उजाले में, यदि उजाले में तो कैसे उजाले में आदि।
पुनः जब स्किनर ने उस स्थिति का पता लगा लिया जिसमें कबूतर गेंद के साथ अधिक हरकत करता है तो उसने वही परिस्थिति बार-बार उत्पन्न की जिससे अन्ततः कबूतर गेंद के साथ खेलना सीख गया।
सिद्धान्त की आलोचना- स्किनर के सिद्धान्त की आलोचना भी की गई है। आलोचना की कुछ महत्वपूर्ण बातें निम्न प्रकार हैं-
(1) यद्यपि सक्रिय अनुकूलित अनुक्रिया द्वारा सीखना एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, परन्तु वह सभी प्रकार के सीखने की एक पर्याप्त व्याख्या नहीं देता है।
(2) स्किनर ने अपना अध्ययन निम्न स्तर के जानवरों तक ही सीमित रखा क्योकि उनका व्यवहार सरल होता है तथा उनके चारों तरफ की परिस्थितियों को अच्छी प्रकार से नियन्त्रित (Control) किया जा सकता है इसलिए मानवीय अधिगम की व्याख्या करने में यह सिद्धान्त असफल रहा है।
(3) यह सिद्धान्त यह बताता है कि कुछ विशेष प्रकार के सीखने के लिये विशेष प्रकार का अनुकूलन होना चाहिये। यह सिद्धान्त यह बताने में असफल हो जाता है कि उच्च विचार, तर्क और इच्छिक क्रियाएँ आदि हम किस प्रकार करते हैं?
(4) स्किनर सीखने में अन्तर्दृष्टि (Insight) का स्थान नहीं मानता। उसके अनुसार किसी समस्या का समाधान उसका सरल होना या उससे मिलती-जुलती पहले हल की गई समस्या का ज्ञान होना है। इस प्रकार वर्तमान समस्या का पूर्व में हल की गई समस्या से अनुकूलन होना आवश्यक है।
स्किनर के अधिगम सिद्धान्त सिद्धान्त का शैक्षिक महत्त्व
स्किनर का यह सिद्धान्त रचनात्मक उपयोग की दृष्टि से शिक्षा के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शिक्षक एवं अभिभावक दोनों ही इस सिद्धान्त का उपयोग कर बालकों के व्यवहार में वांछित विशेषताओं का विकास कर सकते हैं। शैक्षणिक महत्त्व की दृष्टि से इस सिद्धान्त के बारे में निम्न बातें कही जा सकती हैं-
(1) इस सिद्धान्त का उपयोग बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने में अच्छी तरह से किया जा सकता है। जैसे ही अपेक्षित व्यवहार की ओर बच्चे के कदम पड़े, तुरन्त ही उपयुक्त पुनर्बलन द्वारा इस व्यवहार को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
जब बालक यह समझने लगता है कि वह चाहे पढ़े या न पढ़े उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है तो वह पढ़ाई के प्रति उदासीन हो जाता है। अतः बालक के सही और उचित कार्य का प्रबलन
मुस्कराहट, सहानुभूति, प्रशंसा या अधिक अंक देकर करना चाहिये। छोटी कक्षाओं में बालक चाकलेट के लालच में लिखता पढ़ता है।
(2) इस सिद्धान्त के अनुसार वांछित और अच्छे व्यवहार का पुनर्बलन पुरस्कार देकर तुरन्त करना चाहिये। देर करने से प्रभाव कम हो जाता है। शिक्षक जो गृहकार्य देता है यदि वह उसे दूसरे दिन ही देख लेता है और अपनी टिप्पणी उस पर लिख देता है तो छात्र गृहकार्य की ओर ध्यान देते हैं और नित्य करके लाते हैं। गृहकार्य का निरीक्षण न होने पर छात्र उदासीन हो जाते हैं और उसे करना बन्द कर देते हैं।
(3) इस सिद्धान्त का प्रयोग जटिल कार्यों को सिखाने में किया जा सकता है। स्किनर ने अपने प्रयोगों द्वारा चूहों तथा कबूतरों को ऐसी अनुक्रियाएँ सिखायी जो उनके सामान्य व्यवहार से परे थीं।
ठीक इसी प्रकार व्यक्ति का व्यवहार इतना जटिल होता है कि उसे वांछित दिशा में एकदम बदलना सम्भव नहीं होता। स्किनर के अनुसार उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त करके ही समग्र रूप में बदला जा सकता है। स्किनर की यह मान्यता शिक्षण में अत्यन्त उपयोगी है, विशेषकर वर्तनी ज्ञान व उच्चारण में।