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सफलता के लिए संस्कृत श्लोक - हिंदी अर्थ सहित

संस्कृत श्लोक - हिंदी अर्थ सहित इस पोस्ट आपके जीवन में सफलता पाने के लिए वेद, शास्त्र और संस्कृति के अद्वितीय ज्ञान को साझा करते हैं।

 हिंदी अर्थ सहित - संस्कृत श्लोक 

संस्कृत श्लोक -  हिंदी अर्थ सहित इस पोस्ट आपके जीवन में  सफलता पाने के लिए  वेद, शास्त्र और संस्कृति के अद्वितीय ज्ञान को साझा करते हैं। जुड़िए हमारे साथ, और अपने जीवन को योगेश्वर कृष्ण की अद्वितीय मार्गदर्शन में बदलें। जीवन की विजय की ओर एक कदम और बढ़ाएं।



शिवपुराण पर संस्कृत श्लोक

1. भूमौ देवी वसुधा, चित्ते ब्रह्मा चित्तम् गुरुः।

मनसि चेश्वरो ब्रह्मा, जीवे चैव प्रभाकरः॥

अर्थ:

देवी वसुधा भूमि में है, चित्त ब्रह्मा मन में है,

मन शिव है, और जीव अविनाशी प्रभाकर है॥

यह श्लोक मानव अस्तित्व के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त करता है। इसमें धार्मिक और दार्शनिक भावनाएं सम्मिलित हैं, जो मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को समर्पित करती हैं। यह श्लोक भूमि, मन, आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध को दर्शाता है। यह कहता है कि धरती में विराजमान देवी वसुधा हमारी माता है, ब्रह्मा हमारे मन के रूप में विराजमान हैं, शिव हमारी आत्मा में हैं और प्रभाकर (सूर्य) हमारे जीवन के प्रकाशक हैं। यह श्लोक हमें बताता है कि हम सभी अपनी स्वरूपता में परस्पर संबंधित हैं और एकता के भाव को समझना चाहिए।

2. अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।

अहिंसा परमं दानं, धर्मस्तु परमं तथा॥

अर्थ:

अहिंसा सबसे उच्च धर्म है, धर्म में हिंसा नहीं होनी चाहिए।

अहिंसा ही सबसे बड़ा दान है, और धर्म ही सबसे उच्च है॥

यह श्लोक अहिंसा और धर्म के महत्व को बताता है। इसमें कहा गया है कि अहिंसा सबसे महत्वपूर्ण धर्म है और धर्म के अंतर्गत हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह श्लोक हमें अहिंसा और सच्चे धर्म की महत्वपूर्णता पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। यह श्लोक मानवीय संबंधों, समाज में शांति और समरसता के लिए अहिंसा की महत्वता को सुझाता है।

3. यथा नद्यः स्यन्दमानाः सागरेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपाद्विहाय।

तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषं उपैति दिव्यम्॥

अर्थ:

जैसे नदियाँ सागर में बहती हैं, नाम और रूप को छोड़कर जाती हैं।

वैसे ही विद्वान् नाम और रूप से मुक्त होकर, परमात्मा को प्राप्त होता है, जो दिव्य है॥

यह श्लोक आध्यात्मिकता और माया के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करता है। इसमें बताया गया है कि जैसे नदियाँ अपने नाम और रूप को छोड़कर सागर में मिल जाती हैं, वैसे ही विद्वान् ज्ञानी नाम और रूप के मोह से मुक्त होकर दिव्य परमात्मा को प्राप्त होता है। यह श्लोक हमें माया के मोह से मुक्त होने और सच्चे आत्मा की खोज में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। इसका अर्थ है कि हमें नाम, रूप और दुर्लभ साधनों से परे दिव्य सत्य की ओर प्रवृत्त होना चाहिए।

4. अहो गौरी वदनाब्जबृन्दसुन्दरीम्,

कामार्द्दिसर्वमन्गलमाङ्गल्यदास्तुते ।

ते पाठये परम नृणां यतीनां परं

पदं दातु ते परं नन्दनेश्वरिप्रसीद ॥

अर्थ:

हे गौरी, तेरे चेहरे के विशाल नीलकमल के समान सुंदर होने से,

सभी मंगलों की मंगल वर्धिनी, आपकी आराध्य देवी की कृपा सब पर हो।

हे नन्दनेश्वरी, आपके पाठ से सब यतियों को परम पद मिले,

कृपा करें और हमें भी परम पद प्रदान करें॥

यह श्लोक माता पार्वती की स्तुति करता है और उनकी कृपा का आशीर्वाद मांगता है। यह श्लोक उनकी सुंदरता, मंगलों की रानी होने और परम पद की प्राप्ति के लिए उनकी कृपा की प्रार्थना करता है। इसे पढ़ने और ध्यान केंद्रित करने से, योगियों और साधकों को परम पद प्राप्त हो सकता है और इससे माता पार्वती की कृपा प्राप्त हो सकती है।

5. मृत्योर्मा अमृतं गमय।

अमृतं च स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां च।

मृत्योः संसारं गमय।

अहं नित्यं मृत्युनाशं करिष्यामि॥

अर्थ:

मृत्यु से अमृतत्व की ओर ले जाओ।

और अमृतत्व को स्वाध्याय और प्रवचन के माध्यम से प्राप्त करो।

मृत्यु की संसार से मुक्ति प्राप्त करो।

मैं सदैव मृत्यु के नाश को करूँगा॥

यह श्लोक मृत्यु और अमृतत्व के विषय में है। इसमें कहा गया है कि हमें मृत्यु से अमृतत्व की ओर ले जाना चाहिए। यह अमृतत्व स्वाध्याय (अध्ययन) और प्रवचन (सत्संग) के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। इसके द्वारा हम मृत्यु के संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। श्लोक का अर्थ है कि हमें सदैव मृत्यु के नाश की प्रयासरत रहना चाहिए और अमृतत्व की प्राप्ति के लिए स्वाध्याय और सत्संग का आदर्श अपनाना चाहिए।

6. क्षीरसागरसंभूतं हलाहलविषपानिना।

जलेन शशिशेखरं सर्वलोकैकनायकम्॥

अर्थ:

हलाहल विष को पीने वाले शिव ने क्षीरसागर से उत्पन्न हुआ।

जल द्वारा शिव ने चन्द्रमा शिखर पर है और सभी लोकों के एक प्रमुख हैं॥

यह श्लोक शिवपुराण के आधार पर है और शिव के महत्व को बताता है। इसमें कहा गया है कि शिव ने हलाहल विष को पीने के कारण क्षीरसागर का उद्भव हुआ। शिव का स्थान चन्द्रमा के शिखर पर है और वे सभी लोकों के एक प्रमुख देवता हैं। इस श्लोक का अर्थ है कि शिव जल के माध्यम से उद्भवित हुए हैं और समस्त विश्व के एक प्रमुख नेतृत्व करते हैं।


7. नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।

नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय॥

अर्थ:

हे नागेश्वर (सर्पों के स्वामी) वस्त्र में सजे हुए, त्रिनेत्र वाले, भस्माभूषित (भस्म से लिप्त) महेश्वर (शिव) को नित्य और शुद्ध स्वरूपी दिगम्बर (बिना कपड़े के) कहते हैं। उस परमात्मा को नकार (शब्द न) रूप में नमस्कार करते हैं।

यह श्लोक शिवपुराण में पाए जाने वाले एक प्रमुख श्लोक है। इसमें शिव के स्वरूप और उनके महत्व को वर्णित किया गया है। यह श्लोक शिव को नागेंद्रहारी (सर्पों के स्वामी) कहता है जिनके गले में नागों का माला होती है। उन्हें त्रिलोचनाय (तीन नेत्रों वाले) कहा गया है क्योंकि उनके तीन नेत्र होते हैं। उन्हें भस्माङ्गरागाय (भस्मा से धूसर) और महेश्वराय (महान ईश्वर) कहा गया है। 

8. नमामि शमीशान निर्वाणरूपं।

विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।

चिदानन्दरूपं शिवोऽहं शिवोऽहम्॥

अर्थ:

मैं शमीशान को नमस्कार करता हूँ जो निर्वाण का स्वरूप है।

वह सबको व्याप्त करने वाला ब्रह्मवेद का स्वरूप है।

वह अपनी स्वभाविक स्थिति में निर्गुण, निर्विकल्प, निरीह है।

मैं चिदानंद का स्वरूप हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ॥

यह श्लोक शिव के आधार पर है और उनके स्वरूप को वर्णित करता है। इसमें कहा गया है कि शमीशान (शिव) को नमस्कार किया जाता है, जो निर्वाण का स्वरूप है। वे सबको व्याप्त करने वाले ब्रह्मवेद के स्वरूप हैं और वे अपनी स्वभाविक स्थिति में निर्गुण, निर्विकल्प, निरीह हैं। इस श्लोक का अर्थ है कि मैं चिदानंद का स्वरूप हूँ, मैं शिव हूँ, 

9. अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनेन तु।

शिवस्य तुल्यं नास्ति तदेवं कथ्यते मुनिभिः॥

अर्थ:

अष्टादश पुराणों में व्यास के वचनों के अनुसार,

शिव के समान कोई दूसरा नहीं है, यह सभी मुनियों द्वारा कथित किया जाता है॥

यह श्लोक शिवपुराण के आधार पर है और शिव के महत्व को बताता है। इसमें कहा गया है कि व्यास ऋषि के वचनों के अनुसार, शिव के समान कोई और नहीं है, और यही सभी मुनियों द्वारा कहा जाता है। इसका अर्थ है कि शिव सर्वोच्च और अपरम्पारिक हैं और किसी भी देवता या पुराणिक के समान नहीं हैं। शिव को सभी ऋषि-मुनियों द्वारा महानत्वपूर्ण मान्यता दी गई है।

10.अशुद्धानां शुद्धानां च विशुद्धं शुद्धमेव च।

तत्र शिवस्य सन्निधौ शिवत्वं न निरूप्यते॥

अर्थ:

अशुद्ध और शुद्ध तत्वों के बीच में विशुद्ध शुद्धता ही है।

वहां शिव की सन्निधि में शिवत्व को नहीं व्यक्त किया जा सकता है॥

यह श्लोक शिवपुराण के आधार पर है और शिव की महानता को बताता है। इसमें कहा गया है कि अशुद्ध और शुद्ध तत्वों के बीच में विशुद्धता ही होती है, और वहां शिव की सन्निधि में शिवत्व को व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इसका अर्थ है कि शिव सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी हैं और किसी भी प्रकार की अवधारणा या संकेत से परे हैं। उनकी प्रकट सन्निधि में कोई व्यक्तिगतता नहीं होती है।


प्रकृति पर आधारित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित


1. पृथिव्यां त्रिणाचिकेतानां द्वेष्ट्रिणाचिकेता मातरः।

एकस्मिन्नन्यतमवैकैतत्पश्यन्ति विश्वमीश्वरम्॥

अर्थ:

मातरः तीनों लोकों में नफरत रखने वाले होते हैं, परंतु एक ही अव्यक्त ब्रह्म को वे सब देखते हैं॥

यह श्लोक प्रकृति की महिमा और अद्वैत विश्वसाधारण की प्रकट होती है। इसमें कहा गया है कि मातृस्वरूपी पृथ्वी के तीनों लोकों में नफरत रखने वाले होते हैं, परंतु एक ही अव्यक्त ब्रह्म को वे सब देखते हैं। यह श्लोक हमें प्रकृति में एकता और अनंतता का अनुभव कराता है। सभी भूत, पशु, पक्षी, पेड़-पौधों में एक ही परमात्मा का अभिन्न साक्षात्कार होता है। इसलिए हमें प्रकृति की सम्पूर्णता और सामरस्य को समझना चाहिए और प्रेम और सम्मान के साथ सभी जीवों के प्रति व्यवहार करना चाहिए

2. यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिंडे।

यथा पिंडे तथा जीवे, यथा जीवे तथा पिंडे॥

अर्थ:

जैसे शरीर में, वैसे ही ब्रह्माण्ड में।

जैसे ब्रह्माण्ड में, वैसे ही जीव में।

जैसे जीव में, वैसे ही शरीर में॥

यह श्लोक प्रकृति के सामरस्य और अद्वैत स्वरूप को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि जैसे हमारे शरीर में जो कुछ है, वैसे ही ब्रह्माण्ड में भी है। जैसे ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, वैसे ही हमारे जीव में भी है। जैसे हमारे जीव में जो कुछ है, वैसे ही हमारे शरीर में भी है। इसका अर्थ है कि हम सभी प्राणी, प्रकृति और ब्रह्माण्ड के अभिन्न अंश हैं। हमारा शरीर, मन और आत्मा सब एक मूल तत्त्व के रूप में विभाजित नहीं हैं, बल्क एकता में समाहित हैं। 

3. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं तथैव च।

वनस्पतीनां चत्वारि, वायुरन्नं तथैव च॥

अग्निरन्नं चतुष्टयं, आकाशं पञ्चमं स्मृतम्।

इन्द्रियाणि पञ्च प्रोक्तानि, देवताश्च द्वादश॥

अर्थ:

पृथ्वी पर तीन रत्न हैं, जल पर भी वैसे ही।

वनस्पतियों में चार हैं, वायु पर भी वैसे ही।

अग्नि पर चारों तत्व हैं, आकाश को पांचवें माना जाता है।

पांच इंद्रियों को कहा जाता है, बारह देवताओं को भी

4. यदा भूमिर्भारदारा च जलेन्द्रियाणि चाप्यग्निना।

तदा सृजन्ति सर्वाणि भूतानि चापि संस्कृतम्॥

अर्थ:

जब धरती, जल और इंद्रियों का अग्नि द्वारा संयोजन होता है,

तब सभी प्राणियों को संस्कृत (उत्कृष्ट रूप से निर्मित) बनाते हैं॥

यह श्लोक प्रकृति की सृजनशक्ति की महिमा को वर्णन करता है। इसमें कहा गया है कि जब धरती, जल और इंद्रियों का अग्नि द्वारा संयोजन होता है, तब सभी प्राणियों को संस्कृत बनाया जाता है, अर्थात् वे उत्कृष्ट रूप से निर्मित होते हैं। यह श्लोक प्रकृति की सर्वशक्तिमानता और सृजन क्षमता को दर्शाता है। यह भावना हमें प्रकृति के महत्व को समझने और उसकी संरचना में संतुलन को स्थापित करने के लिए प्रेरित करती है।

5. यथा नदीस्तनुमात्रेण सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः समंजनाति।

एवं धर्मः सर्वभूतेषु गुणः प्रकृतिरिवास्थितः॥

अर्थ:

जैसे नदी सिर्फ अपने धारकों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी प्राणियों के लिए समान रूप से उपयोगी होती है,

उसी प्रकार धर्म सभी प्राणियों में स्थित प्रकृति के गुण की तरह होता है॥

यह श्लोक प्रकृति के धर्म की महत्वपूर्णता को दर्शाता है। जैसे नदी न केवल अपने धारकों के लिए बल्कि सभी प्राणियों के लिए महत्वपूर्ण होती है, उसी प्रकार धर्म भी सभी प्राणियों में स्थित प्रकृति के गुण की तरह होता है। यह श्लोक हमें प्रकृति के साथ संबंध बनाने की महत्वपूर्णता को समझाता है और सभी प्राणियों के साथ सहयोगपूर्ण संबंध रखने की आवश्यकता को प्रमुखता देता है।

6. प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।

विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥

अर्थ:

प्रकृति और पुरुष को भी जानो, इन दोनों को गुणों के साथ और विकारों के साथ जन्मे हुए जानो॥

यह श्लोक प्रकृति और पुरुष के संबंध को वर्णन करता है। यह कहता है कि हमें प्रकृति और पुरुष को जानना चाहिए, इन दोनों को गुणों के साथ और विकारों के साथ जन्मे हुए जानना चाहिए। यह श्लोक हमें प्रकृति और पुरुष के अंतर्निहित संबंध को समझाता है और हमें इस संबंध में संतुलन और समरसता स्थापित करने की आवश्यकता को दर्शाता है।

7. प्रकृतेर्ज्ञानबलात्स्वर्गद्वारं नृणां द्विजत्वमाप्नोति।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहाद्यान्ति चैव यानि॥

अर्थ:

प्रकृति के ज्ञान और बल से मनुष्य स्वर्ग के द्वार प्राप्त करता है।

प्राणियों को प्रकृति में जाना पड़ता है और निग्रहादि के कारण वह उन्हें यातनाएँ पहुँचाती है॥

यह श्लोक प्रकृति के महत्व को दर्शाता है। इसमें कहा गया है कि प्रकृति के ज्ञान और बल से मनुष्य स्वर्ग के द्वार प्राप्त करता है, और प्राणियों को प्रकृति में जाना पड़ता है और उनके निग्रहादि (बाधाओं) के कारण उन्हें यातनाएँ पहुँचाई जाती है। इस श्लोक से हमें प्रकृति के साथ संबंध बनाने और उसकी संरक्षा करने की महत्वपूर्णता को समझने की प्रेरणा मिलती है।

विद्या पर आधारित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित


1.  एवं यः शिक्षेत्तमः पुरुषो विद्याभ्यासे विमुच्यते।

विद्यया विमुक्तः सर्वः प्रवासि ज्ञानमानवः॥

अर्थ:

जो व्यक्ति अध्ययन द्वारा अच्छी शिक्षा प्राप्त करता है,

उसे विद्या के माध्यम से मुक्ति प्राप्त होती है।

ज्ञान से मुक्त हुआ मनुष्य समस्त यात्रियों के समान हो जाता है॥

यह श्लोक विद्या के महत्व को वर्णन करता है। यह कहता है कि जो व्यक्ति अच्छी शिक्षा प्राप्त करता है, उसे विद्या के माध्यम से मुक्ति प्राप्त होती है। जब एक व्यक्ति ज्ञान से मुक्त होता है, तो वह सभी यात्रियों के समान हो जाता है, अर्थात् वह अज्ञानता, अंधविश्वास और अवगुणों से मुक्त हो जाता है और ज्ञान की ओर प्रवृत्त होता है। यह श्लोक हमें विद्या के महत्व को समझाता है और हमें शिक्षा के माध्यम से स्वयं को सुधारने और समृद्धि की ओर प्रगति करने की प्रेरणा देता है।

2. अप्राप्य मदाचार्यं हि प्राप्यते बुद्धिरत्र हि।

बुद्ध्याप्राप्यं च बुद्धिमान्विद्यां प्राप्यते सद्गतिम्॥

अर्थ:

मिलाने के लिए श्रेष्ठ गुरु को नहीं पाने वाला व्यक्ति बुद्धि को प्राप्त करता है।

बुद्धि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करता है, और ज्ञान को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सद्गति (उच्च स्थान, मुक्ति) को प्राप्त करता है॥

3. विद्यां सर्वार्थसंग्रहं विष्णुमिच्छेद् ब्रह्मचारिणी।

अध्यापयति यो विद्यां स ब्रह्मचारी निगद्यते॥

अर्थ:

विष्णु को चाहिए वह विद्या को संग्रहित करती है,

जो विद्या को शिक्षा देता है वह ब्रह्मचारी कहलाता है॥

यह श्लोक विद्या और ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है ब्रह्मचारी के चरित्र और आचरण में नियमितता और संयम) के महत्व को दर्शाता है। इसमें कहा गया है कि जो व्यक्ति विष्णु को चाहिए, वह विद्या को संग्रहित करता है और जो विद्या को शिक्षा देता है, वह ब्रह्मचारी कहलाता है। इस श्लोक से हमें विद्या और ब्रह्मचर्य के साथ संबंधित मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक गुणों की महत्वपूर्णता को समझाता है और हमें उच्च आदर्शों की ओर प्रेरित करता है।

पर्यावरण पर आधारित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

1. अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥

अर्थ:

छोटे मन वालों की गणना अपने-पराये करती है,उदारचरित्र वालों के लिए पृथ्वी ही परिवार है॥

यह श्लोक पर्यावरण के महत्व को दर्शाता है। इसमें कहा गया है कि छोटे मन वाले लोग अपने और पराये की गणना करते हैं, जबकि उदारचरित्र वालों के लिए सभी मनुष्य पृथ्वी पर एक परिवार है। इस श्लोक से हमें पर्यावरण की महत्वपूर्णता को समझाता है और हमें स्थानीयता और सामान्यता के प्रति समझदारी और सहयोग के लिए प्रेरित करता है।

2. पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितं।

यत्र जलं धारयन्ति तत्र देवाः सहायताम्॥

अर्थ:

पृथ्वी पर तीन रत्न हैं: जल, अन्न और सुभाषित (उत्तम वचन),

जहां पानी बहाता है, वहां देवताओं की सहायता होती है॥

यह श्लोक पर्यावरण के महत्व को दर्शाता है। इसमें कहा गया है कि पृथ्वी पर तीन रत्न होते हैं: जल, अन्न और सुभाषित (उत्तम वचन)। जहां पानी बहता है, वहां देवताओं की सहायता होती है। यह श्लोक हमें प्रकृति के महत्व को समझाता है और हमें पानी के संरक्षण, भोजन की महत्वता, और उत्तम वचन के प्रयोग के लिए प्रेरित करता है।

3. यथा पिंगला पदयोर्नियतं याद्रियते च यथा।

तथा तद्विद्यानां विज्ञानं च यादृशं दृश्यते॥

अर्थ:

जैसे पृथ्वी और आकाश में समाने रहने वाला पिंगला नाद श्रवण में सुनाई देता है,

वैसे ही विद्या और ज्ञान की प्राप्ति भी योग्यतानुसार होती है॥

यह श्लोक पर्यावरण और प्रकृति के संबंध पर ध्यान केंद्रित करता है। इसमें कहा गया है कि जैसे पृथ्वी और आकाश में समाने रहने वाला पिंगला नाद श्रवण में सुनाई देता है, वैसे ही विद्या और ज्ञान की प्राप्ति भी योग्यतानुसार होती है। इस श्लोक से हमें पर्यावरण में संतुलन और सहजता के महत्व को समझाता है, और हमें संयमित और अभ्यासयुक्त जीवन शैली के प्रति प्रेरित करता है।

4. यथा पितरो देवता यथा मातरः सरित्तटे।

यथा च सर्वदेवानां यथा च पृथ्वी सर्वदा॥

अर्थ:

जैसे पितर देवताओं के समान होते हैं, मातरें नदी किनारे के समान होती हैं,

वैसे ही सभी देवताओं के समान होते हैं, और पृथ्वी हमेशा समान रहती है॥

यह श्लोक पर्यावरण और प्रकृति के संबंध पर ध्यान केंद्रित करता है। इसमें कहा गया है कि पितर देवताओं के समान होते हैं, मातरें नदी किनारे के समान होती हैं, सभी देवताओं के समान होते हैं और पृथ्वी हमेशा समान रहती है। इस श्लोक से हमें पर्यावरण की सभी जीवजंतुओं और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सम्मान और संयम की महत्वपूर्णता को समझाता है। इसके अलावा, यह हमें एकता, समरसता और संप्रेम की महत्वता के प्रति प्रेरित करता है।

5. आपदां धर्मसदृशं तदानीं प्रापणंति प्रजाः।

यथैव नीतिर्विपदां सदृशं प्रापणंति जीवाः॥

अर्थ:

जीवित जन्तु धर्म के समान आपदा में अपनी रक्षा करते हैं,

वैसे ही व्यक्ति नीति के समान संकट में अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है॥

यह श्लोक पर्यावरण और प्रकृति के महत्व को दर्शाता है। इसमें कहा गया है कि जीवित जन्तु धर्म के समान आपदा में अपनी रक्षा करते हैं और व्यक्ति नीति के समान संकट में अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। यह श्लोक हमें पर्यावरण की संतुलन और सहजता के महत्व को समझाता है, और हमें संयमित और अभ्यासयुक्त जीवन शैली के प्रति प्रेरित करता है।

6.अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।

यत्र नास्ति हिंसाया तत्र धर्मो न विद्यते॥

अर्थ:

अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है, और धर्म में हिंसा नहीं होती।

जहां हिंसा नहीं होती है, वहां धर्म नहीं होता॥

यह श्लोक पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण के महत्व को बताता है। इसमें कहा गया है कि अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है और धर्म में हिंसा नहीं होती है। जहां हिंसा नहीं होती है, वहां धर्म नहीं होता। इस श्लोक से हमें पर्यावरण में सहजता, संयम, और संरक्षण के महत्व को समझाता है। इसके अलावा, यह हमें अहिंसा, शांति, और समग्र समरसता के महत्व के प्रति प्रेरित करता है।

गौ माता पर आधारित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित


1. गोभिः पुरा जाता यः प्रतिमुक्तः सानुगच्छति।

वश्यं गोरिति यो वेद गवां तं तु धनं श्रियम्॥

अर्थ:

वह पुरुष धन और श्री को प्राप्त करता है जो गायों को पशुओं की आदि मानता है और उनसे मिलाने के लिए उनका अनुगामी होता है। जिसने गायों को वश में कर रखा है, उसे धन और श्री की प्राप्ति होती है॥

यह श्लोक गौ माता (गाय) के महत्व को बताता है। इसमें कहा गया है कि वह पुरुष धन और श्री को प्राप्त करता है जो गायों को पशुओं की आदि मानता है और उनसे मिलाने के लिए उनका अनुगामी होता है। यह श्लोक हमें गौ माता की महत्वपूर्णता, गौसेवा, और उसकी संरक्षण के महत्व को समझाता है। इसके अलावा, यह हमें सद्भाव, धर्मी जीवन शैली, और संप्रेम के महत्व के प्रति प्रेरित करता है।

2. यहां एक और गौ माता पर आधारित संस्कृत श्लोक है जिसके साथ अर्थ भी दिया गया है

गावो देवि जगन्मातः सर्वस्मिन् सामर्थ्यवत्सले।

या ते सर्वाः प्रसन्ना च पालयामि त्वां गौजने॥

अर्थ:

हे गौ माता, जगत की माता और सबका संरक्षिका,

जो सब प्रकार से समर्थ है, तुझे सब प्रसन्न करने वाली हूँ, मैं तुझे रक्षा करूँगी॥

यह श्लोक गौ माता की महिमा और महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि गौ माता ही जगत की माता है और सभी के सामर्थ्य को समझने वाली है। इस श्लोक से हमें गौ माता की पूजा, सम्मान, और संरक्षण के महत्व को समझाता है। इसके अलावा, यह हमें संप्रेम, आदर्शित जीवन शैली, और सामर्थ्य के प्रति प्रेरित करता है।

3. गावः पृथिवीरूपा च सन्ति देवि जगत्पते।

त्वं यज्ञेषु प्रथिष्ठासि यथा वाचोऽभिरक्षिता॥

अर्थ:

हे गौ माता, तुम पृथ्वी के समान हो, जो जगत की प्रमुख है।

तुम यज्ञों में स्थापित हो, वैसे ही जैसे वाणी रक्षित होती है॥

यह श्लोक गौ माता (गाय) के महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि गौ माता पृथ्वी की रूपरेखा में हैं, जो जगत की प्रमुख हैं। उन्हें यज्ञों में स्थापित किया जाता है, वैसे ही जैसे वाणी को सुरक्षित रखा जाता है। यह श्लोक हमें गौ माता के महत्व को समझाता है और हमें उनकी संरक्षण, सम्मान, और सेवा के प्रति प्रेरित करता है। इसके अलावा, यह हमें पृथ्वी के संरक्षण, प्रकृति के साथ संघर्ष में संयमित रहने, और परिसंप्रेक्ष्य में जीने के महत्व के प्रति प्रेरित करता है।

4. अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्याद् अन्न सम्भवः।

गौरन्नं तत्र संभवति गौः शक्तिः परमो ध्रुवम्॥

अर्थ:

सभी प्राणियों का उत्पन्न होना अन्न से होता है, और वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। गौ माता वहां अन्न उत्पन्न करती है, गौ माता ही परम शक्ति है जो स्थिर है॥

यह श्लोक गौ माता (गाय) के महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि सभी प्राणियों का उत्पन्न होना अन्न से होता है, और वर्षा से ही अन्न उत्पन्न होता है। गौ माता वहां अन्न का उत्पादन करती है, और गौ माता ही परम शक्ति है जो स्थिर है। यह श्लोक हमें गौ माता के महत्व को समझाता है, उनके संरक्षण और सम्मान के प्रति प्रेरित करता है। इसके अलावा, यह हमें प्रकृति की महत्वता, अन्नदाता के साथ संबंधित जीवन शैली, और धार्मिकता के महत्व को समझाता है।

5. गोब्राह्मणेभ्यः शुभं यत्स्नानं तपः क्षत्रियाय वर्धनम्।

वैश्यानां यत्स्वधिया शुद्धिः सुद्रानां यत्परिचारया॥

अर्थ:

गौ माता से ब्राह्मणों को शुद्ध स्नान, क्षत्रियों को वृद्धि और तपस्या, वैश्यों को आचरण से शुद्धि और सुद्रों को सेवा द्वारा पुण्य प्राप्त होता है॥

यह श्लोक गौ माता (गाय) के महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि गौ माता के संपर्क से ब्राह्मणों को शुद्ध स्नान मिलता है, क्षत्रियों को वृद्धि और तपस्या मिलती है, वैश्यों को अपनी धर्म के अनुसार आचरण करके शुद्धि मिलती है और सुद्रों को सेवा करके पुण्य प्राप्त होता है। यह श्लोक हमें गौ माता के सम्मान के महत्व को समझाता है और हमें उनके संरक्षण, सम्मान, और सेवा के प्रति प्रेरित करता है। 

6. अदितिः सुरभिः पूता गावो देवीर्नमोऽस्तु ते।

अनेन जीवति जगत् स्थितं विश्वं ब्रह्म स्वरूपिणम्॥

अर्थ:

हे देवी गौ माता, तुम सूरभि (सुगंधित) गायें हो, तुम्हें नमस्कार हो। इसके द्वारा यह जगत् ब्रह्म के स्वरूप में बसता है॥

यह श्लोक गौ माता (गाय) के महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि गौ माता सूरभि (सुगंधित) होती हैं और उन्हें नमस्कार किया जाता है। इसके द्वारा यह जगत् ब्रह्म के स्वरूप में बसता है, यानी गौ माता की सेवा द्वारा ही हम ब्रह्म की प्राप्ति कर सकते हैं। यह श्लोक हमें गौ माता की महिमा को समझाता है और हमें उनके संरक्षण और सम्मान के प्रति प्रेरित करता है। इसके अलावा, यह हमें प्रकृति के साथ संयमित रहने और परिसंप्रेक्ष्य में जीने के महत्व को समझाता है।

नारी पर आधारित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित


1. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

अर्थ:

जहां महिलाएं पूज्यती हैं, वहां देवताएं रमण करती हैं। और जहां वे नहीं पूज्यती हैं, वहां सभी क्रियाएं व्यर्थ होती हैं॥

यह श्लोक महिलाओं (नारी) के महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि जहां महिलाएं पूज्यती हैं, वहां देवताएं आनंदित होती हैं और उस स्थान पर सभी क्रियाएं अर्थपूर्ण होती हैं। लेकिन जहां महिलाएं अवमानित होती हैं या उन्हें नहीं पूजा जाता है, वहां सभी क्रियाएं निष्फल होती हैं। यह श्लोक हमें महिलाओं के सम्मान और महत्व को समझाता है और हमें उनके साथ समानता, सम्मान और आदर्श व्यवहार के प्रति प्रेरित करता है। 

2. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

अर्थ:

जहां महिलाएं पूज्यती हैं, वहां देवताएं आनंदित होती हैं। और जहां वे नहीं पूज्यती हैं, वहां सभी क्रियाएं व्यर्थ होती हैं॥

यह श्लोक महिलाओं (नारी) के महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि जहां महिलाएं पूज्यती हैं, वहां देवताएं आनंदित होती हैं और उस स्थान पर सभी क्रियाएं अर्थपूर्ण होती हैं। लेकिन जहां महिलाएं अवमानित होती हैं या उन्हें नहीं पूजा जाता है, वहां सभी क्रियाएं निष्फल होती हैं। यह श्लोक हमें महिलाओं के सम्मान और महत्व को समझाता है और हमें उनके साथ समानता, सम्मान और आदर्श व्यवहार के प्रति प्रेरित करता है।

3. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

अर्थ:

जहां महिलाएं पूज्यती हैं, वहां देवताएं आनंदित होती हैं। और जहां वे नहीं पूज्यती हैं, वहां सभी क्रियाएं व्यर्थ होती हैं॥

यह श्लोक महिलाओं (नारी) के महत्व को व्यक्त करता है। इसमें कहा गया है कि जहां महिलाएं पूज्यती हैं, वहां देवताएं आनंदित होती हैं और उस स्थान पर सभी क्रियाएं अर्थपूर्ण होती हैं। लेकिन जहां महिलाएं अवमानित होती हैं या उन्हें नहीं पूजा जाता है, वहां सभी क्रियाएं निष्फल होती हैं। यह श्लोक हमें महिलाओं के सम्मान और महत्व को समझाता है और हमें उनके साथ समानता, सम्मान और आदर्श व्यवहार के प्रति प्रेरित करता 


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