Bal vikash tatha shiksha sastra notes in hindi
बालविकास तथा शिक्षाशास्त्र के अंतर्गत सबसे पहले हम विकास तथा अभिवृद्धि को समझेंगे कि आखिरकार विकास तथा अभिवृद्धि का संबंध किस प्रकार से है, तो चलिए इसे आगे समझते हैं कि विकास तथा अभिवृद्धि में क्या संबंध है?
बालविकास:- वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया है उसी समय से प्रारंभ हो जाती है, जिस जिस समय शिशु गर्भ में आता है। यह प्रक्रिया है उसके जन्म के पश्चात भी चलती रहती है, गर्भाधान से लेकर जन्म तक बालक में अनेक परिवर्तन होते हैं।
विकास की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है इसी के फलस्वरूप विकास की विभिन्न अवस्थाओं से होकर बालक गुजरता है।
वास्तव में विकास के कुछ अन्य विशेष अवस्थाओं से ही होकर गुजरता है, इन अवस्थाओं में उसका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास होता है विकास की इन अवस्थाओं की कुछ अपनी विशेषताएं होती है।
एक शिक्षक इन विशेषताओं को भी ध्यान में रखकर ही बालक की शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण करता है, बालक की विकास की अवस्था से बालक को भली-भांति समझा जा सकता है।
अभिवृद्धि:- अभिवृद्धि का अर्थ कुछ विद्वान अभिवृद्धि एवं विकास को एक समझते हैं परंतु यह दोनों भिन्न-भिन्न क्रियाए हैं। का अभिवृद्धि का तात्पर्य शरीर और उसके विभिन्न अंगों के वजन आकार में होने वाले परिवर्तन से लगाया जाता है, जबकि विकास का संबंध अभिवृद्धि से होता है।
विकास तथा आवृत्ति में संबंध को हम एक उदाहरण के द्वारा समझते हैं।
उदाहरण के लिए बालक की हड्डियां आकार में बढ़ती है,यह बालक की अभिवृद्धि है किंतु हड्डियां कड़ी हो जाने के कारण उसके स्वरूप में परिवर्तन आ जाता है,यह विकास को दर्शाता है इस प्रकार विकास में अभिवृद्धि का भाव निहित रहता है।
अभिवृद्धि तथा विकास में अंतर (Difference between development and growth)
Bal vikash tatha shiksha sastra in hindi |
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बाल विकास के प्रमुख सिद्धांत
बालक का विकास सुनिश्चित सिद्धांतों के अनुसार होता है। इनमें से तीन प्रमुख सिद्धांत है।
1.विकास का एक निश्चित प्रतिमान होता है:- प्रत्येक जाति या ना चाहे मनुष्य पशु उसका विकास का निश्चित प्रतिमान होता है, उसी के अनुरूप ही उसका शारीरिक विकास होता है।
जैसे मनुष्य जाति में पहले बालक के आगे के दांत निकलते हैं,बाद में पीछे के दांत निकलते हैं।
2. सामान्य से विशिष्ट की ओर का सिद्धांत:- इसमें विकास की प्रक्रिया सबसे पहले सामान्य फिर विशेष होती है, बालक पहले शरीर को चलाता है, फिर बाहें घुमाता है और फिर उसके बाद वस्तुओं को पकड़ने की कोशिश करता है।
3. विकास की गति का सतत सिद्धांत:- विकास की प्रक्रिया सतत अबाध्य गति से चलती है, शारीरिक व मानसिक शीलगुणों का विकास श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में होता रहता है।
बालक के शारीरिक विकास की विशेषताएं (Characteristics of a child's physical development)
जन्म से बालक एक विशेष शरीर लेकर पैदा होता है तथा उसमें विकास की सभी क्षमताएं निहित होती है।
जन्म से लेकर प्रौढ़ावस्था तथा बालक का शरीर अनेक अनुभव प्राप्त करता है तथा अनेक घटनाओं के घटित होने से उसमें अनेक प्रकार के शारीरिक परिवर्तन होते हैं, पर बालक के शरीर का विकास सभी दिशाओं में एक समय में एक जैसा नहीं होता है। शरीर का प्रत्येक अवयव विशेष नियमानुसार विकसित होता है.
कोई अवयव जब किसी समय तीव्रता से बढ़ता है तब उसी समय शरीर का अन्य व्यक्ति से बढ़ता है।
परंतु यह निश्चित है कि सभी अवयव उसी समय विकास के लिए निरंतर जारी रहता है।
उदाहरण के लिए देखते हैं कि 10 वर्ष की आयु के बालक का कद और भार एक जैसी गति के साथ बढ़ता रहता है,किंतु कद का बढ़ना मंद पड़ जाता है और भार तेजी से बढ़ता है।
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1.बालक का बाह्य एवं आंतरिक अवयवों के विकास का सिद्धांत
1. बाह्य अवयवों का विकास
- कंकालीय विकास
- शरीर की आकृति और अनुपात के रूप में विकास
- कद और वजन में परिवर्तन
- दांतो का विकास
2. आंतरिक अवयवों का विकास।
- स्नायु मंडल का विकास
- मस्तिष्क का विकास
- मांसपेशियों का विकास
- श्वास संस्थान का विकास
- ह्रदय एवं रक्त संचालन
- रक्तचाप एवं नाड़ी गति
- पाचन तंत्र
- विभिन्न ग्रंथियां
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