जीन पियाजे का सिद्धांत | theory of jean Piaget - Best Notes - Ischool24
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जीन पियाजे का सिद्धांत | theory of jean Piaget - Best Notes

जीन पियाजे का सिद्धांत (theory of jean Piaget) - जीन पियाजे से संबंधित प्रश्न अक्सर शिक्षक पात्रता परीक्षा एग्जाम में पूछे जाते हैं।  इस पोस्ट में जीन पियाजे  से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं को सरलता पूर्वक समझाया गया है। जीन पियाजे  से संबंधित यह महत्वपूर्ण बिंदु शिक्षक पात्रता परीक्षा के लिए बहुत ही ज्यादा उपयोगी है।
 

जीन पियाजे का परिचय - Introduction of jean Piaget

जीन पियाजे (Jean Piaget) स्विट्जरलैंड के निवासी दार्शनिक व साइकोलॉजिस्ट थे, इनका मानना था संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत के अनुसार सीखना उस समय  अर्थ पूर्ण माना जाता है, जब बालक की रूचि और उसके कौतूहल उसके अनुरूप  हो। 

जीन पियाजे महोदय का सबसे महत्वपूर्ण योगदान संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में माना जाता है। 

बाल विकास शिक्षा शास्त्र के अध्ययन के लिए जीन पियाजे का सिद्धांत का प्रमुख स्थान माना जाता है,जिसका प्रभाव सबसे ज्यादा बाल विकास विषय पर पड़ा है। जीन पियाजे के द्वारा प्रतिपादित प्रमुख सिद्धांतों के कारण ही विभिन्न मनोवैज्ञानिकों का ध्यान  बाल विकास की अवस्थाएं तथा संज्ञान की ओर अग्रसर हुआ। 

जीन पियाजे का सिद्धांत- theory of jean Piaget

जीन पियाजे बच्चों में सोच का विकास के विस्तार के बारे में अध्ययन किया इसके अंतर्गत बालक किसी भी परिस्थिति में किस प्रकार से सोचता है इसके बारे में इन्होंने  अपने का सिद्धांत का उल्लेख किया। 

जीन पियाजे का मानना था कि- बालक उनकी वातावरण के अनुसार लगभग समस्त ज्ञान को उनकी गतिविधियों के द्वारा खोजते हैं या निर्मित करते हैं, अतः जीन पियाजे के सिद्धांत को बालक के संज्ञानात्मक विकास तक ले जाने वाला रचनात्मक पथ माना जाता है। जिससे कि इस सिद्धांत को निर्माण का सिद्धांत भी कहा जाता है।

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत- Piaget's theory of cognitive development

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में वर्गीकृत किया और संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनका मानना था कि बच्चे चार अवस्थाओं से होकर गुजरते हैं, इन्हीं अवस्थाओ के अनुसार  बालक में संज्ञानात्मक विकास  होता है। 

जीन पियाजे का सिद्धांत चार स्तरों मे वर्गीकृत किया गया है-जो की इस प्रकार है । 

  1. संवेदी प्रेरक अवस्था - संवेदी प्रेरक अवस्था के प्रमुख गुण इस प्रकार हैं- 

  • जीवन के 2 वर्षों तक संवेदी क्रियात्मक अवस्था रहती है। 

  •  इस आयु में उसकी बुद्धि उसके कार्यों द्वारा व्यक्त होती है।

  • इस अवस्था में बालक अपने दिमाग में बहुत सी मानसिक क्रियाएं नहीं कर पाते हैं। 

  1. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था - बालक के 2 से 7 वर्ष तक की अवस्था को पूर्व संक्रियात्मक अवस्था कहा जाता है जिसके प्रमुख गुण इस प्रकार हैं- 

  • इस अवस्था में बालक नवीन  सूचनाओं व अनुभवों का संग्रह करता है। 

  • वह संवेदी प्रेरक अवस्था की तुलना में अधिक समस्याओं का समाधान करने योग्य हो जाता है। 

  • आत्म केंद्रिता का विकास होता है व इस अवस्था के अंत में आत्मकेंद्रिता में थोड़ी सी कमी होने लगती है। 

  • इस अवस्था में बालक में संज्ञानात्मक परिपक्वता में कुछ कमी पाई जाती है, इस अवस्था में बालक कुछ शिक्षक प्रशिक्षण दिए जाने के कारण ही परंपरागत समस्याओं को सीख पाता है। 

  • जब कोई बालक बार-बार किसी चीजों को गिराता है उसका अपनी संवेदी क्रियात्मक योजना में समावेश कर रहा होता है। 

  • इस अवस्था में बालकों में अधिक बदलाव जब नहीं होता तो समायोजन की तुलना में समावेश अधिक होता है। 

  •  वह अपने वातावरण के साथ समायोजन करके जिन वस्तुओं को प्रत्यक्ष रूप से देखता है उन्हीं के अनुसार उनका समावेश करता है। 

  • इस अवस्था में बालक प्रतीकों के माध्यम से सीखता है।  विभिन्न प्रकार के चिन्ह और प्रतीकों जैसे फोटो चित्र नक्शे आदि के माध्यम से वह वस्तुओं को समझता है और दूसरे वस्तुओं को निरूपित करता है। 

  •  उम्र बढ़ने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को समझने लगता है। 

  1. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था- बालक के 7 वर्ष से 11 वर्ष तक की अवस्था को मूर्त संक्रियात्मक माना जाता है। इस अवस्था के प्रमुख गुण इस प्रकार हैं-

  • बालक के लंबाई और भार में कमी आने लगती है अर्थात बालक के शारीरिक विकास में अस्थिरता आ जाती है। 

  • बालक में विश्वास करने की भावना जागृत होने लगती है। 

  • अनेक कार्यों को अपने मानसिक स्तर पर संपादित करने की चेष्टा करता है और अपनी प्रतिभा को विकसित करने का कोशिश करता है। 

  • वह छोटे बच्चों की वजह बड़ों के विचार प्रक्रिया से अधिक मिलता जुलता है। 

  • स्कूल के आयु के बच्चे मूर्त वस्तुओं के बारे में व्यवस्थित और तार्किक ढंग से सोचने लगते हैं। 

  • चीजों को उनके किसी गुण के परिमाण के अनुसार जैसे वजन और लंबाई क्षमता क्रम निर्धारण आदि के बारे में बच्चों को जानकारी हो जाती है। 

  • बच्चों में स्थानिक सोच का विकास हो जाता है उन्हें स्थान समय  वह दिशा आदि की  समझ हो जाती है। 

  1. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था- औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था 11 वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक माना जाता है। इस अवस्था के प्रमुख गुण इस प्रकार हैं।

  • इस अवस्था में बालक अमूर्त व वैज्ञानिक ढंग से सोचने की क्षमता विकसित कर लेते हैं। 

  • बालक में आदर्श चिंतन का विकास हो जाता है, साथ ही शाब्दिक परिकल्पना, दूसरों के साथ जुड़कर कार्य करने की भावना, तर्क का अनुप्रयोग करना निष्कर्ष निकालना आदि भी सीख लेता है। 

  •  इस अवस्था में किशोर तर्क का अनुप्रयोग अधिक अमूर्त रूप से कर सकते हैं। 

  • बालक, व्यक्ति के विचारों से अधिक प्रभावित होता है जिसके कारण बुद्धि और भाषा में परिवर्तन होते हैं।

  • अपने व्यक्तित्व को किसी के समझ बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करता है।


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